Sunday 14 February 2016

किसी की चाह सीने में जगा कर देखते हैं


मुहब्बत की हक़ीक़त आज़मा कर देखते हैं
किसी की चाह सीने में जगा कर देखते हैं

ज़मीनों आसमा के फासले मिटते न देखे  
चलो हम आज ये दूरी मिटा कर देखते हैं

ये कैसी आग है इसमे फ़ना होते हैं कितने
कभी इस आग में खुद को जला कर देखते हैं

बड़ी बेदर्द दुनिया है बड़ा खुदसर जमाना
किसी के दर्द को अपना बना कर देखते हैं

तुम्हारी याद की खुशबू अभी तक आ रही है  
पुरानी डायरी अपनी उठाकर देखते हैं

उन्हें देखे से लगता है पुरानी आशनासाई
यकीं आ जाएगा नज़दीक जाकर देखते है

उमीदें हैं अभी रौशन रगों में है रवानी
गुज़रते वक़्त से लम्हा चुरा कर देखते हैं

भरोसा क्या लकीरों का, मुक़द्दर से गिला क्या  
खफ़ा है ज़िन्दगी हिमकर मनाकर देखते हैं 


© हिमकर श्याम


(चित्र गूगल से साभार)

Thursday 4 February 2016

शेष है स्वपन


गुज़र रहा है
लम्हा-लम्हा
उड़ा जा रहा
हाथों से क्षण।

थमतीं नहीं  
चलती हुईं  
घड़ियाँ
हाए, कैसी ये
मजबूरियाँ
रीत रहा मन।

क्यूं बैठ रोता
सूख रहा
समय का सोता
छीन रही उमर 
शेष है स्वपन।


© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)